जापान-चीन यात्रा संस्मरण-84

विश्व की सबसे बड़ी स्टील संरचना
शीघ ही हम ओलम्पिक स्टेडियम के निकट आ गये और आधुनिक स्थापत्य कला के एक और बेजोड़ चमत्कार से रूबरू हुए। यह बीजिंग का नेशनल स्टेडियम था जो 2008 के ग्रीष्म ओलम्पिक खेलों हेतु खड़ा किया गया था। यह समूचा ढांचा एक चिड़िया के घोंसले की शक्ल का था। इसका निर्माण कार्य 2003 में शुरू हुआ और ओलम्पिक खेलों के पूर्व जून 2008 में इसका उद्घाटन हुआ। 21 अरब रूपयों की लागत से बने इस अत्याधुनिक स्टेडियम के प्रमुख इन्जीनियर भारतीय मूल के अरूपा थे। इस स्टेडियम की क्षमता 80 से 90 हजार तक है।
इस स्टेडियम को अब इसके स्वरूप के अनुसार बर्ड्स नेस्ट नाम से भी पुकारा जाने लगा है। यह विश्व की सबसे बड़ी स्टील संरचना है। इसके निर्माण हेतु विश्व के चोटी के वास्तुकारों को अपने प्रस्ताव सौंपने को कहा गया था। निविदा प्रक्रिया अपनाने के पश्चात् कुल 13 प्रस्तुतियां छांटी गई। इनमें से एक स्विस वास्तुकार कंपनी को इसकी डिजाइन का जिम्मा सौंपा गया जिसके माध्यम से एक चीनी वास्तुकार कम्पनी ने चिड़िया के घोंसले की अपनी डिजाइन पेश की तो उसे एकदम स्वीकार कर लिया गया। एसा माना जाता है कि इसके निर्माण में लगी 21 अरब रूपयों की लागत पश्चिमी मानदण्डों से बहुत कम है। यही निर्माण अगर यूरोप या अमेरिका में होता तो 2 खरब रूपयों से कम नहीं पड़ता।
दरअसल चीन विश्व के समक्ष शिल्प का एक अनूठा नमूना पेश करना चाहता था जिसमें पारम्परिक स्टेडियमों से हट कर कोई चीनी झलक मिले। चीन चाहता था कि यह निर्माण एक सामूहिक भवन के रूप में तो हो ही मगर छेददार हो। इसके लिये डिजाइनरों ने चीनी मृत्तिका (चीणी) का अध्ययन किया और घोंसले की योजना का विचार उत्पन्न हुआ। स्टेडियम दो स्वतत्र ढांचों में है जो एक दूसरे से 50 फीट दूर हैं, इनके चारों तरफ स्टील की फ्रेम है। चार्ल्स डिगाल अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की छत ढह जाने की घटना के बाद समूचे निर्माण पर पुनर्विचार किया गया तथा हटने वाली छत बनाने का विचार त्याग दिया गया। इससे मूल लागत में 15 अरब रूपये कम हो गये अन्यथा समूचे निर्माण पर 50 अरब रूपये का व्यय अनुमानित था। छत का निर्माण नहीं करने से पूरा ढांचा भी हल्का हो गया और बीजिंग के भूकम्प संभावित क्षेत्र में आने की वजह से जो जोखिम उठाई जा रही थी उसका खतरा भी टल गया। स्टेडियम की क्षमता पहले एक लाख रखी गई थी मगर इस परिवर्तन से दस हजार कम करनी पड़ी।
इस स्टेडियम का आसपास का इलाका शोपिंग माल्स तथा मनोरंजन के साधनों के रूप में विकसित किया जा रहा है। यह स्टेडियम बीजिंग आने वाले पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण केन्द्र बन चुका है। स्टेडियम देखने के बाद हम आगे बढ़े। धीरे धीरे इमारतें पीछे छूटने लगी और उनका स्थान पहाड़ियों ने ले लिया। अब हम एकदम निर्जन क्षेत्र में पहुंच गये। उतार चढ़ाव भरी सड़कों और दोनों तरफ पहाड़ों की श्रृंखला के बीच से गुजरते हुए तो कभी कभी एसा लगता था जैसे वीर शिरोमणी मेवाड़ की पावन घाटियों से गुजर रहे हों।
थोड़ी देर बाद इन पहाड़ियों में कहीं कहीं झोपड़ियां नजर आने लगी। सड़क किनारे पारम्परिक चीनी शिल्प से बने घर नजर आने लगे। हम चीन की दीवार के पास पहुंच रहे थे। दूर से ही पहाड़ों पर इसकी आकृति उभरने लगी थी। जिस तरह चित्तौड़गढ़ जाते हुए या उसके पास से गुजरते हुए दूर से ही पहाड़ों पर किले की आकृति उभरने लगती है वैसा ही दृश्य यहां हमें नजर आ रहा था। ज्यूं ज्यूं हमारी बस आगे बढ़ती जा रही थी यह आकृति और स्पष्ट होती जा रही थी। शीघ ही हम एक बड़े से दरवाजे के नीचे से गुजरे। यह दरवाजा अन्य चीनी निर्माणों जैसा ही था। हम चीन की दीवार के परिसर में पहुंच गये थे। आगे विशाल प्रांगण था जिसमें बसें ही बसें नजर आ रही थी। हमारे यहां जैसे वोल्वो की बसों को श्रेष्ठ माना जाता है, यहां खड़ी तमाम बसें उसी श्रेणी और गुणवत्ता की थी। मैंने कोशिश की कि कोई साधारण बस नजर आ जाये पर एक भी नहीं दिखी।
हमें भी यहीं उतार दिया गया। ज्यूं ही बस से उतरे हवा के तेज थपेड़ों का एसा आक्रमण हुआ कि लगा उड़ जायेंगे। हवाएं इतनी ठंडी थी कि सभी ठिठुरने लगे। तेज धूप के बावजूद भी ठंड इतनी लग रही थी कि एक बार तो सोच में पड़ गये कि क्या हम वाकई उपर चढ़ पायेंगे। उपर निगाह उठा कर देखा तो दो तरफ पहाड़ थे और दोनों पर चीन की जग प्रसिद्ध दीवार खड़ी थी। इस दीवार पर चढ़ने वाले लोगों की संख्या इतनी अधिक थी कि दीवार तो कहीं नजर आ ही नहीं रही थी, नीचे से उपर तक लोगों का रैला दिख रहा था। रंग बिरंगे परिधान पहने लोगों की भीड़ एसी नजर आ रही थी जैसे पहाड़ पर किसी ने ब्रश से एक चौड़ा पट्टा खींच दिया हो।
संसार के महान आश्चर्यों में से एक के समक्ष खड़ा हो मैं अत्यन्त रोमांचित अनुभव कर रहा था। संसार के नये सात आश्चर्यों में से इटली का कोलेजियम और ताजमहल मैंने देख रखा था। ग्रेट वाल के समक्ष मैं खड़ा था। प्राचीन आश्चर्यों में से भी एफिल टावर पेरिस, स्टेचू ऑफ लिबर्टी व एम्पायर स्टेट बिल्डिंग न्यूयार्क तथा पीसा की मीनार मैं देख चुका था। इस अहसास ने ही कंपकंपाती सर्दी का खौफ काफूर कर दिया और मैंने दीवार पर चढ़ने का निश्चय कर लिया।
चारों तरफ हजारों की संख्या में पर्यटक नजर आ रहे थे, एक दिन पूर्व फोरबिडन सिटी में जो दृश्य था उससे भी कहीं अधिक भीड़ यहां नजर आ रही थी। अधिकांश पर्यटक चीनी ही थे मगर यूरोपिय पर्यटक भी नजर आ रहे थे। दीवार पर चढ़ने के लिये टिकिट लेना जरूरी था। स्कूली छात्रों व वरिष्ठ नागरिकों के लिय टिकिट में छूट थी। हमारे ग्रुप में मैं ही एकमात्र एसा था जो 60 से उपर था। टिकिट का मूल्य बहुत अधिक था। छात्रों और बुजुर्गों के लिये 40 युवान तथा अन्य के लिये 80 युवान अर्थात् 300 व 600 रू.। प्रवेश शुल्क से ही प्रतिदिन करोड़ों रूपयों की आमदनी हो जाती होगी, इसी का अन्दाजा मैं लगाने लगा।
एन्जेल व पूरण मेहरा हमारी गिनती करने लगे, उन्होंने हमारे सबके पासपोर्ट एकत्र किये और टिकिट लेने आगे बढ़े। टिकिट का पासपोर्ट से क्या सम्बन्ध है, यह मैं सोचने लगा। वैसे विदेशों में हर जगह पर पासपोर्ट दिखाना ही पड़ता है इसलिये हरदम पासपोर्ट अपने साथ रखना जरूरी होता है और इसकी हिफाजत भी उतनी ही जरूरी है क्यूंकि आपका पासपोर्ट गुमा नहीं कि आपका व्यक्तित्व ही विलिन हो गया। थोड़ी ही देर में दोनों हमारे टिकिट लेकर आये। मेरा टिकिट आधे दाम में आ सकता था मगर मेरा भी पूरा ही टिकिट ले लिया, मैंने इस बारे में बात करनी चाही तो सबने कहा क्या फर्क पड़ता है, कौन से अपनी जेब से पैसे जा रहे हैं। सब लोगों को अपने पास के हल्के भारी सामान बस में रखने को कह दिया गया क्यूंकि चढ़ाई में इनसे मुश्किल आ सकती थी। मैंने सिर्फ केमरे लिये और लाइन में लग गया। (जारी)

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